चींटी को देखा?
वह सरल, विरल, काली रेखा
तम के तागे सी जो हिल-डुल,
चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल,
वह है पिपीलिका पाँति !
देखो ना, किस भाँति
काम करती वह सतत,
कन-कन कनके चुनती अविरत।
गाय चराती,
धूप खिलाती,
बच्चों की निगरानी करती,
लड़ती, अरि से तनिक न डरती,
दल के दल सेना संवारती,
घर-आँगन, जनपथ बुहारती।
देखो वह वल्मीकि सुघर,
उसके भीतर है दुर्ग, नगर !
अदभुत उसकी निर्माण कला,
कोई शिल्पी क्या कहे भला !
उसमें हैं सौध, धाम, जनपथ,
आँगन, गो-गृह भंडार अकथ,
हैं डिम्ब-सद्म, वर शिविर रचित,
ड्योढ़ी बहु, राजमार्ग विस्तृत :
चींटी है प्राणी सामाजिक,
वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।
देखा चींटी को?
उसके जी को?
भूरे बालों की सी कतरन,
छिपा नहीं जिसका छोटापन,
वह समस्त पृथ्वी पर निर्भय
विचरण करती, श्रम में तन्मय
वह जीवन की तिनगी अक्षय।
वह भी क्या देही है, तिल-सी ?
प्राणों की रिलमिल झिलमिल-सी।
दिनभर में वह मीलों चलती,
अथक कार्य से कभी न टलती।
वह भी क्या शरीर से रहती?
वह कण, अणु, परमाणु ?
चिर सक्रिय, वह नहीं स्थाणु !
हा मानव !
देह तुम्हारे ही है, रे शव !
तन की चिंता में घुल निसिदिन
देह मात्र रह गए, दबा तिन !
प्राणि प्रवर
हो गए निछावर
अचिर धूलि पर ! !
निद्रा, भय, मैथुनाहार
-ये पशु लिप्साएँ चार-
हुई तुम्हें सर्वस्व - सार ?
धिक् मैथुन आहार यंत्र !
क्या इन्हीं बालुका भीतों पर
रचने जाते हो भव्य, अमर
तुम जन समाज का नव्य तंत्र ?
मिली यही मानव में क्षमता ?
पशु, पक्षी, पुष्पों से समता ?
मानवता पशुता समान है ?
प्राणिशास्त्र देता प्रमाण है ?
बाह्य नहीं आंतरिक साम्य
जीवों से मानव को प्रकाम्य !
मानव को आदर्श चाहिए,
संस्कृति, आत्मोत्कर्ष चाहिए,
बाह्य विधान उसे हैं बंधन,
यदि न साम्य उनमें अंतरतम-
मूल्य न उनका चींटी के सम,
वे हैं जड़, चींटी है चेतन !
जीवित चींटी, जीवन वाहक,
मानव जीवन का वर नायक,
वह स्व-तंत्र, वह आत्म विधायक !
० ० ० ०
पूर्ण तंत्र मानव, वह ईश्वर,
मानव का विधि उसके भीतर !
वह सरल, विरल, काली रेखा
तम के तागे सी जो हिल-डुल,
चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल,
वह है पिपीलिका पाँति !
देखो ना, किस भाँति
काम करती वह सतत,
कन-कन कनके चुनती अविरत।
गाय चराती,
धूप खिलाती,
बच्चों की निगरानी करती,
लड़ती, अरि से तनिक न डरती,
दल के दल सेना संवारती,
घर-आँगन, जनपथ बुहारती।
देखो वह वल्मीकि सुघर,
उसके भीतर है दुर्ग, नगर !
अदभुत उसकी निर्माण कला,
कोई शिल्पी क्या कहे भला !
उसमें हैं सौध, धाम, जनपथ,
आँगन, गो-गृह भंडार अकथ,
हैं डिम्ब-सद्म, वर शिविर रचित,
ड्योढ़ी बहु, राजमार्ग विस्तृत :
चींटी है प्राणी सामाजिक,
वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।
देखा चींटी को?
उसके जी को?
भूरे बालों की सी कतरन,
छिपा नहीं जिसका छोटापन,
वह समस्त पृथ्वी पर निर्भय
विचरण करती, श्रम में तन्मय
वह जीवन की तिनगी अक्षय।
वह भी क्या देही है, तिल-सी ?
प्राणों की रिलमिल झिलमिल-सी।
दिनभर में वह मीलों चलती,
अथक कार्य से कभी न टलती।
वह भी क्या शरीर से रहती?
वह कण, अणु, परमाणु ?
चिर सक्रिय, वह नहीं स्थाणु !
हा मानव !
देह तुम्हारे ही है, रे शव !
तन की चिंता में घुल निसिदिन
देह मात्र रह गए, दबा तिन !
प्राणि प्रवर
हो गए निछावर
अचिर धूलि पर ! !
निद्रा, भय, मैथुनाहार
-ये पशु लिप्साएँ चार-
हुई तुम्हें सर्वस्व - सार ?
धिक् मैथुन आहार यंत्र !
क्या इन्हीं बालुका भीतों पर
रचने जाते हो भव्य, अमर
तुम जन समाज का नव्य तंत्र ?
मिली यही मानव में क्षमता ?
पशु, पक्षी, पुष्पों से समता ?
मानवता पशुता समान है ?
प्राणिशास्त्र देता प्रमाण है ?
बाह्य नहीं आंतरिक साम्य
जीवों से मानव को प्रकाम्य !
मानव को आदर्श चाहिए,
संस्कृति, आत्मोत्कर्ष चाहिए,
बाह्य विधान उसे हैं बंधन,
यदि न साम्य उनमें अंतरतम-
मूल्य न उनका चींटी के सम,
वे हैं जड़, चींटी है चेतन !
जीवित चींटी, जीवन वाहक,
मानव जीवन का वर नायक,
वह स्व-तंत्र, वह आत्म विधायक !
० ० ० ०
पूर्ण तंत्र मानव, वह ईश्वर,
मानव का विधि उसके भीतर !



