Thursday, 2 March 2017

चींटी - सुमित्रानंदन पंत


चींटी को देखा?
वह सरल, विरल, काली रेखा
तम के तागे सी जो हिल-डुल,
चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल,
वह है पिपीलिका पाँति !
देखो ना, किस भाँति
काम करती वह सतत,
कन-कन कनके चुनती अविरत।

गाय चराती,
धूप खिलाती,
बच्चों की निगरानी करती,
लड़ती, अरि से तनिक न डरती,
दल के दल सेना संवारती,
घर-आँगन, जनपथ बुहारती।

देखो वह वल्मीकि सुघर,
उसके भीतर है दुर्ग, नगर !
अदभुत उसकी निर्माण कला,
कोई शिल्पी क्या कहे भला !
उसमें हैं सौध, धाम, जनपथ,
आँगन, गो-गृह भंडार अकथ,
हैं डिम्ब-सद्म, वर शिविर रचित,
ड्योढ़ी बहु, राजमार्ग विस्तृत :
चींटी है प्राणी सामाजिक,
वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।

देखा चींटी को?
उसके जी को?
भूरे बालों की सी कतरन,
छिपा नहीं जिसका छोटापन,
वह समस्त पृथ्वी पर निर्भय
विचरण करती, श्रम में तन्मय
वह जीवन की तिनगी अक्षय।

वह भी क्या देही है, तिल-सी ?
प्राणों की रिलमिल झिलमिल-सी।
दिनभर में वह मीलों चलती,
अथक कार्य से कभी न टलती।
वह भी क्या शरीर से रहती?
वह कण, अणु, परमाणु ?
चिर सक्रिय, वह नहीं स्थाणु !

हा मानव !
देह तुम्हारे ही है, रे शव !
तन की चिंता में घुल निसिदिन
देह मात्र रह गए, दबा तिन !

प्राणि प्रवर
हो गए निछावर
अचिर धूलि पर ! !

निद्रा, भय, मैथुनाहार
-ये पशु लिप्साएँ चार-
हुई तुम्हें सर्वस्व - सार ?

धिक् मैथुन आहार यंत्र !
क्या इन्हीं बालुका भीतों पर
रचने जाते हो भव्य, अमर
तुम जन समाज का नव्य तंत्र ?
मिली यही मानव में क्षमता ?
पशु, पक्षी, पुष्पों से समता ?
मानवता पशुता समान है ?
प्राणिशास्त्र देता प्रमाण है ?

बाह्य नहीं आंतरिक साम्य
जीवों से मानव को प्रकाम्य !
मानव को आदर्श चाहिए,
संस्कृति, आत्मोत्कर्ष चाहिए,

बाह्य विधान उसे हैं बंधन,
यदि न साम्य उनमें अंतरतम-
मूल्य न उनका चींटी के सम,
वे हैं जड़, चींटी है चेतन !
जीवित चींटी, जीवन वाहक,
मानव जीवन का वर नायक,
वह स्व-तंत्र, वह आत्म विधायक !

० ० ० ०
पूर्ण तंत्र मानव, वह ईश्वर,
मानव का विधि उसके भीतर !

स्त्री - सुमित्रानंदन पंत


यदि स्वर्ग कहीं है पृथ्वी पर, तो वह नारी उर के भीतर,
दल पर दल खोल हृदय के अस्तर
जब बिठलाती प्रसन्न होकर
वह अमर प्रणय के शतदल पर!

मादकता जग में कहीं अगर, वह नारी अधरों में सुखकर,
क्षण में प्राणों की पीड़ा हर,
नव जीवन का दे सकती वर
वह अधरों पर धर मदिराधर।

यदि कहीं नरक है इस भू पर, तो वह भी नारी के अन्दर,
वासनावर्त में डाल प्रखर
वह अंध गर्त में चिर दुस्तर
नर को ढकेल सकती सत्वर!

घर - सुमित्रानंदन पंत


समुद्र की
सीत्कार भरतीं
आसुरी आँधियों के बीच
वज्र की चट्टान पर
सीना ताने
यह किसका घर है ?
सुदूर दीप स्तंभ से
ज्योति प्रपात बरसाता हुआ !...
या जलपोत है ?

नाथुनों से फेन उगलतीं
अजगर तरंगें
सहस्र फन फैलाए
इसे चारों ओर घेरे
फूत्कार कर रही हैं !
उनकी नाड़ियों में
लालसा का कालकूट
दौड़ रहा है !

वे अतृप्ति की
ऐंठती रस्सियों सी
इसे कसे हैं !
इस निर्जन
स्फटिक स्वच्छ मंदिर के
मुक्ताभ कक्ष में
कल रात चाँद
चाँदनी के संग
सोया था !
किरणों की बाँहों में
चंदिरा की
अनावृत ज्वाला को
लिपटाए !

तब
लहरों के फेनिल फनों में
स्वप्नों की मणियां
दमक रही थीं !
सवेरे
इसी मंदिर के अजिर में
अरुणोदय हुआ !
रक्त मदिरा पिए !

रात और प्रभात
पाहुन भर थे !--
यह धरती का घर है,-
(आकाश मंदिर नहीं ! )
हरिताभ शांति में
निमज्जित !

सिन्धु तरंगें
पंक सनी टाँगों से बहती
धरा योनि की दुर्गंध
धो धोकर
कड़ुवाती
मुंह बिचकाती,
पछाड़ खाती रहती हैं !

यह धरती पुत्र
किसान का घर है,--
द्वार पर
पीतल के चमचमाते
जल भरे कलस लिये,
सिर पर आँचल दिये,
युवती बहू खडी है,--
अनंत यौवना
बहू !

एक तारा - सुमित्रानंदन पंत


नीरव सन्ध्या मे प्रशान्त
डूबा है सारा ग्राम-प्रान्त।
पत्रों के आनत अधरों पर सो गया निखिल बन का मर्मर,
ज्यों वीणा के तारों में स्वर।
खग-कूजन भी हो रहा लीन, निर्जन गोपथ अब धूलि-हीन,
धूसर भुजंग-सा जिह्म, क्षीण।
झींगुर के स्वर का प्रखर तीर, केवल प्रशान्ति को रहा चीर,
सन्ध्या-प्रशान्ति को कर गभीर।
इस महाशान्ति का उर उदार, चिर आकांक्षा की तीक्ष्ण-धार
ज्यों बेध रही हो आर-पार।

अब हुआ सान्ध्य-स्वर्णाभ लीन,
सब वर्ण-वस्तु से विश्व हीन।
गंगा के चल-जल में निर्मल, कुम्हला किरणों का रक्तोपल
है मूँद चुका अपने मृदु-दल।
लहरों पर स्वर्ण-रेख सुन्दर, पड़ गई नील, ज्यों अधरों पर
अरुणाई रप्रखर-शिशिसे डर।
तरु-शिखरों से वह स्वर्ण-विहग, उड़ गया, खोल निज पंख सुभग,
किस गुहा-नीड़ में रे किस मग!
मृदु-मृदु स्वप्नों से भर अंचल, नव नील-नील, कोमल-कोमल,
छाया तरु-वन में तम श्यामल।

पश्चिम-नभ में हूँ रहा देख
उज्ज्वल, अमन्द नक्षत्र एक!
अकलुष, अनिन्द्य नक्षत्र एक ज्यों मूर्तिमान ज्योतित-विवेक,
उर में हो दीपित अमर टेक।
किस स्वर्णाकांक्षा का प्रदीप वह लिए हुए? किसके समीप?
मुक्तालोकित ज्यों रजत-सीप!
क्या उसकी आत्मा का चिर-धन स्थिर, अपलक-नयनों का चिन्तन?
क्या खोज रहा वह अपनापन?
दुर्लभ रे दुर्लभ अपनापन, लगता यह निखिल विश्व निर्जन,
वह निष्फल-इच्छा से निर्धन!

आकांक्षा का उच्छ्वसित वेग
मानता नहीं बन्धन-विवेक!
चिर आकांक्षा से ही थर् थर्, उद्वेलित रे अहरह सागर,
नाचती लहर पर हहर लहर!
अविरत-इच्छा ही में नर्तन करते अबाध रवि, शशि, उड़गण,
दुस्तर आकांक्षा का बन्धन!
रे उडु, क्या जलते प्राण विकल! क्या नीरव, नीरव नयन सजल!
जीवन निसंग रे व्यर्थ-विफल!
एकाकीपन का अन्धकार, दुस्सह है इसका मूक-भार,
इसके विषाद का रे न पार!

चिर अविचल पर तारक अमन्द!
जानता नहीं वह छन्द-बन्ध!
वह रे अनन्त का मुक्त-मीन अपने असंग-सुख में विलीन,
स्थित निज स्वरूप में चिर-नवीन।
निष्कम्प-शिखा-सा वह निरुपम, भेदता जगत-जीवन का तम,
वह शुद्ध, प्रबुद्ध, शुक्र, वह सम!
गुंजित अलि सा निर्जन अपार, मधुमय लगता घन-अन्धकार,
हलका एकाकी व्यथा-भार!
जगमग-जगमग नभ का आँगन लद गया कुन्द कलियों से घन,
वह आत्म और यह जग-दर्शन!

सुख-दुख - सुमित्रानंदन पंत

मैं नहीं चाहता चिर-सुख,
मैं नहीं चाहता चिर-दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख !

सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरन;
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन !

जग पीड़ित है अति-दुख से
जग पीड़ित रे अति-सुख से,
मानव-जग में बँट जाएँ
दुख सुख से औ’ सुख दुख से !

अविरत दुख है उत्पीड़न,
अविरत सुख भी उत्पीड़न;
दुख-सुख की निशा-दिवा में,
सोता-जगता जग-जीवन 
!
यह साँझ-उषा का आँगन,
आलिंगन विरह-मिलन का;
चिर हास-अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का !

बूढा चांद - सुमित्रानंदन पंत

बूढा चांद 
कला की गोरी बाहों में
क्षण भर सोया है 

यह अमृत कला है
शोभा असि,
वह बूढा प्रहरी
प्रेम की ढाल!

हाथी दांत की 
स्‍वप्‍नों की मीनार
सुलभ नहीं,-
न सही!
ओ बाहरी
खोखली समते,
नाग दंतों
विष दंतों की खेती
मत उगा!

राख की ढेरी से ढंका
अंगार सा
बूढा चांद
कला के विछोह में
म्‍लान था,
नये अधरों का अमृत पीकर
अमर हो गया!

पतझर की ठूंठी टहनी में
कुहासों के नीड़ में
कला की कृश बांहों में झूलता
पुराना चांद ही
नूतन आशा
समग्र प्रकाश है!

वही कला,
राका शशि,-
वही बूढा चांद,
छाया शशि है!

Wednesday, 1 March 2017

प्रियतम से - सुभद्राकुमारी चौहान

बहुत दिनों तक हुई परीक्षा
अब रूखा व्यवहार न हो।
अजी, बोल तो लिया करो तुम
चाहे मुझ पर प्यार न हो॥

जरा जरा सी बातों पर
मत रूठो मेरे अभिमानी।
लो प्रसन्न हो जाओ
गलती मैंने अपनी सब मानी॥

मैं भूलों की भरी पिटारी
और दया के तुम आगार।
सदा दिखाई दो तुम हँसते
चाहे मुझ से करो न प्यार॥

ये कदम्ब का पेड़ - सुभद्राकुमारी चौहान

ये कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे
ले देती यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली
किसी तरह नीची हो जाती ये कदम्ब की डाली
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता
अम्मा-अम्मा कह बंसी के स्वर में तुम्हें बुलाता
सुन मेरी बंसी को माँ तुम इतनी खुश हो जाती
मुझे देखने काम छोड़ तुम बाहर तक आती
तुमको आता देख बांसुरी रख मैं चुप हो जाता
पत्तो में छिपकर धीरे से फिर बांसुरी बाजाता
घुस्से होकर मुझे डाटती कहती नीचे आजा
पर जब मैं न उतरता हंसकर कहती मुन्ना राजा
नीचे उतरो मेरे भईया तुम्हे मिठाई दूँगी
नए खिलोने माखन मिसरी दूध मलाई दूँगी
मैं हंस कर सबसे ऊपर टहनी पर चढ़ जाता
एक बार ‘माँ’ कह पत्तों मैं वहीँ कहीं छिप जाता
बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता
तुम आँचल फैला कर अम्मा वहीं पेड़ के नीचे
ईश्वर से कुछ विनती करती बैठी आँखें मीचे
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता
तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे
यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे

आज सिन्धु में ज्वार उठा है - अटल बिहारी वाजपेयी

आज सिन्धु में ज्वार उठा है , नगपति फिर ललकार उठा है,
कुरुक्षेत्र के कण-कण से फिर, पांञ्चजन्य हुँकार उठा है।
शत – शत आघातों को सहकर जीवित हिन्दुस्थान हमारा,
जग के मस्तक पर रोली-सा, शोभित हिन्दुस्थान हमारा।

दुनिया का इतिहास पूछता, रोम कहाँ, यूनान कहाँ है?
घर-घर में शुभ अग्नि जलाता , वह उन्नत ईरान कहाँ है?
दीप बुझे पश्चिमी गगन के , व्याप्त हुआ बर्बर अँधियारा ,
किन्तु चीरकर तम की छाती , चमका हिन्दुस्थान हमारा।

हमने उर का स्नेह लुटाकर, पीड़ित ईरानी पाले हैं,
निज जीवन की ज्योत जला , मानवता के दीपक वाले हैं।

जग को अमृत घट देकर, हमने विष का पान किया था,
मानवता के लिए हर्ष से, अस्थि-वज्र का दान दिया था।

जब पश्चिम ने वन-फल खाकर, छाल पहनकर लाज बचाई ,
तब भारत से साम-गान का स्वर्गिक स्वर था दिया सुनाई।

अज्ञानी मानव को हमने, दिव्य ज्ञान का दान दिया था,
अम्बर के ललाट को चूमा, अतल सिन्धु को छान लिया था।

साक्षी है इतिहास प्रकृति का,तब से अनुपम अभिनय होता है,
पूरब में उगता है सूरज, पश्चिम के तम में लय होता हैं।

विश्व गगन पर अगणित गौरव के, दीपक अब भी जलते हैं,
कोटि-कोटि नयनों में स्वर्णिम, युग के शत सपने पलते हैं।

किन्तु आज पुत्रों के शोणित से, रंजित वसुधा की छाती,
टुकड़े-टुकड़े हुई विभाजित, बलिदानी पुरखों की थाती।

कण-कण पर शोणित बिखरा है, पग-पग पर माथे की रोली,
इधर मनी सुख की दीवाली, और उधर जन-जन की होली।

मांगों का सिंदूर, चिता की भस्म बना, हां-हां खाता है,
अगणित जीवन-दीप बुझाता, पापों का झोंका आता है।

तट से अपना सर टकराकर, झेलम की लहरें पुकारती,
यूनानी का रक्त दिखाकर, चन्द्रगुप्त को है गुहारती।

रो-रोकर पंजाब पूछता, किसने है दोआब बनाया,
किसने मंदिर-गुरुद्वारों को, अधर्म का अंगार दिखाया?
खड़े देहली पर हो, किसने पौरुष को ललकारा,
किसने पापी हाथ बढ़ाकर माँ का मुकुट उतारा।

काश्मीर के नंदन वन को, किसने है सुलगाया,
किसने छाती पर, अन्यायों का अम्बार लगाया?
आंख खोलकर देखो! घर में भीषण आग लगी है,
धर्म, सभ्यता, संस्कृति खाने, दानव क्षुधा जगी है।

हिन्दू कहने में शर्माते, दूध लजाते, लाज न आती,
घोर पतन है, अपनी माँ को, माँ कहने में फटती छाती।
जिसने रक्त पीला कर पाला , क्षण-भर उसकी ओर निहारो,
सुनी सुनी मांग निहारो, बिखरे-बिखरे केश निहारो।
जब तक दु:शासन है, वेणी कैसे बंध पायेगी,
कोटि-कोटि संतति है, माँ की लाज न लुट पायेगी।

वीर तुम बढ़े चलो - द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

प्रात हो कि रात हो संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो चन्द्र से बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

एक ध्वज लिये हुए एक प्रण किये हुए
मातृ भूमि के लिये पितृ भूमि के लिये
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

अन्न भूमि में भरा वारि भूमि में भरा
यत्न कर निकाल लो रत्न भर निकाल लो
वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !